एक ज़माना था, आज से सदियों पहले, एक छोटे से शहर में अबू बकर नाम का एक नेक और दीनदार शख़्स रहता था। उसकी ज़िंदगी सादगी और सब्र से भरी थी। वह मेहनत-मज़दूरी करके अपने घर का गुज़ारा करता, लेकिन उसके दिल में हमेशा अल्लाह का खौफ़ और उस पर पुख्ता यकीन रहता था।
अबू बकर का पेशा हलवाई का था। वह रोज़ाना सुबह फ़ज्र की नमाज़ के बाद अपनी दुकान खोलता और ताज़ा, मीठी जलेबियाँ और समोसे बनाता। उसकी दुकान की ख़ास बात ये थी कि वह कभी मुनाफ़े की ज़्यादा परवाह नहीं करता था। उसका मक़सद सिर्फ़ हलाल रोज़ी कमाना और लोगों को ख़ुशियाँ देना था।
एक दिन, शहर में सूखा पड़ गया। बारिश का नाम-ओ-निशान नहीं था और लोग दाना-पानी को तरसने लगे। बाज़ारों में चीज़ें महंगी हो गईं और ग़रीबों का हाल बद से बदतर होता जा रहा था। ऐसे मुश्किल वक़्त में भी, अबू बकर ने अपनी जलेबियों और समोसों की कीमतें नहीं बढ़ाईं। बल्कि, उसने ज़रूरतमंदों को मुफ़्त में भी खिलाना शुरू कर दिया।
अबू बकर की बीवी, फातिमा, अक्सर उसे समझाती कि “आप ऐसे में मुनाफ़ा नहीं कमाएंगे तो घर कैसे चलेगा?” लेकिन अबू बकर मुस्कुरा कर कहता, “फातिमा, अल्लाह पर भरोसा रखो। उसका वादा है कि जो उसकी राह में खर्च करता है, अल्लाह उसे कई गुना लौटाता है।”
शहर में एक ज़ालिम और लालची ताजिर भी था, जिसका नाम सुल्तान था। उसे अबू बकर की ये नेक दिली ज़रा भी पसंद नहीं थी। वह सोचता था कि ये बुज़ुर्ग अपनी मेहनत को यूँ ही बर्बाद कर रहा है। सुल्तान ने कई बार अबू बकर को ताने दिए, “अबू बकर, ये अल्लाह-अल्लाह करके तुम क्या हासिल कर लोगे? दुनिया में तो सिर्फ़ दौलत ही काम आती है।”
अबू बकर सिर्फ़ मुस्कुरा देता और अपनी धुन में लगा रहता। उसने अपनी रोज़ी-रोटी का एक हिस्सा हमेशा मस्जिद और ग़रीबों के लिए निकाला। उसने कभी किसी को अपनी दुकान से खाली हाथ नहीं लौटाया।
कुछ और वक़्त गुज़रा। सूखे की शिद्दत बढ़ती जा रही थी। लोगों के घर खाली हो रहे थे। एक दिन, शहर में एक अजनबी सौदागर आया। उसके पास बहुत कीमती सामान था और वह उसे बेचने के लिए एक ईमानदार शख़्स की तलाश में था। सुल्तान ने उसे अपने पास बुलाने की कोशिश की, लेकिन उस सौदागर ने सुल्तान के बारे में शहर में फैली बुरी बातों को सुन रखा था।
उस सौदागर ने लोगों से पूछा, “इस शहर में सबसे ईमानदार और नेक इंसान कौन है?” हर किसी की ज़ुबान पर एक ही नाम था – अबू बकर!
सौदागर अबू बकर की दुकान पर पहुँचा। उसने देखा कि अबू बकर अपनी सादगी में अपनी दुकान चला रहा है और एक ग़रीब बच्चे को मुफ़्त में जलेबी खिला रहा है। सौदागर ने अबू बकर से बात की और उसकी नेक दिली और अल्लाह पर उसके गहरे यकीन से बहुत मुतास्सिर हुआ।
सौदागर ने अबू बकर को अपना सारा कीमती सामान संभालने और बेचने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। उसने अबू बकर को बहुत बड़ा मुनाफ़ा देने का वादा किया। अबू बकर ने ईमानदारी से सौदागर का काम किया और कुछ ही वक़्त में बहुत सी दौलत कमा ली।
जब यह ख़बर सुल्तान तक पहुँची, तो उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उसने अबू बकर से माफ़ी माँगी और उसकी नेक दिली की दाद दी।
अबू बकर ने उस दौलत का एक बड़ा हिस्सा शहर के ग़रीबों में तक़सीम कर दिया, मस्जिद की तामीर करवाई और कुएँ खुदवाए ताकि लोगों को पानी मिल सके। उसकी नेक दिली और अल्लाह पर उसके भरोसे की वजह से शहर में खुशियाली लौट आई।
अबू बकर ने हमेशा सिखाया कि दौलत से बढ़कर नेक अमल और अल्लाह पर ईमान है। उसकी ज़िंदगी एक मिसाल बन गई कि जो अल्लाह की राह में देता है, अल्लाह उसे कई गुना नवाज़ता है। और इसी तरह, उस नेक दिली का इनाम ज़िंदगी भर उसे मिलता रहा, और उसकी यादें पीढ़ियों तक शहर के लोगों के दिलों में ताज़ा रहीं।
